जिद और जुनून की जरूरत....
पेशा लिखने का है लेकिन दायरे में रहकर। शब्दों की सीमा और 'स्टाइलशीट' के बंधन को स्वीकार्य करने की अनिवार्यता के साथ। पत्रकारिता का यह स्वर्णिम दौर है जिसमें सनसनी फैलाने की छूट के साथ ग्लैमर...नाम व शोहरत के अलावा भी बहुत कुछ है। हां...अगर अभाव है तो स्वविचार के साथ समुचित वक्त का। लिखने के लिए विचार की जरूरत है और मन के खेत में विचार की फसल उगाने के लिए पर्याप्त अध्ययन अनिवार्य है। वास्तविकता यह है कि इसके लिए हमारी पीढ़ी के अधिकांश खबरनवीसों के पास वक्त ही कहां है? खैर..., यह तो हमारी सामयिक व व सामूहिक समस्या है लेकिन तब क्या करें जब दुनिया की आपाधापी व तेजी से बदलते घटनाक्रमों को लेकर कुछ कहने की कसक दिल की दुनिया में हलचल पैदा करने लगे? इसी उधेड़बुन के बीच मानो अचानक किसी ने आवाज दी कि क्यों परेशान हो रहे हो? 'ब्लॉग' है ना! यकीनन 'ब्लॉग' सूचना एवं प्रौद्योगिकी के इस दौर में विचारों को उन्मुक्त करने का सरल व सशक्त माध्यम है।
किसी ने ठीक ही कहा है 'मरने के बाद आदमी कुछ नहीं बोलता। मरने के बाद आदमी कुछ नहीं सोचता और बिना बोलने व सोचने वाला व्यक्ति मर जाता है।' सच बताऊं...मैं मरना नहीं चाहता हूं। कम से कम खामोश रहकर व बगैर सोचकर तो हर्गिज नहीं। मैं तो जीना चाहता हूं....मरने के बाद भी। रहना चाहता हूं आपके बीच...दुनिया से चले जाने के बाद भी। यह न तो मुश्किल है और न ही नामुमकिन, बशर्ते कि हमारे मन में अभिव्यक्ति को लेकर जुनून और जिद हो।
मेरे पास तो यह दोनों की अमूल्य निधियां हैं लेकिन क्या आपके पास है विचारों के आदान-प्रदान करने का जुनून व इसके जरिए समाज से सीखने व सिखाने की जिद? अगर हां...तो स्वागत है आपका। आइए...'दृष्टिपथ' से निकली 'कसक' को कम से कमतर करने का सामूहिक प्रयास करें और वो भी आहिस्ता-आहिस्ता....।
Tuesday, March 2, 2010
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क्या बात है...क्या खूब कही है गोपाल जी आपने.... कि .मैं तो जीना चाहता हूँ , मरने के बाद भी...सही भी है ..जो मर कर जिए ...जीना उसी का नाम है...अति बुरी चीज है ये मणि अच्छी तरह जानता हूँ...फिर भी मैं बोलता बहुत हूँ....आजकल लोग बिना बोले अपना समय कैसे काट लेते हैं...मुझे तो चुप रहने को कह दिया जाए तो यूं लगता है...मानो सबसे बड़ी सजा देदी है. ...मेरी एक बाल कविता का अंश मुझे याद आ रहा है.....कि पापा पेड़ नहीं चलते हैं...ना ही करते कोई बात / कैसे कट जाते हैं पापा / इनके दिन और इनकी रात......लोग पूरी ज़िन्दगी काट देते हैं...चुपचाप..गुमसुम...और खामोश...गोपाल जी, आपने ब्लॉग बनवा कर बहुत ही बढ़िया काम किया है.. यूं लगता हैं मानो... हम बात कर रहे हैं...आपसे प्रत्युत्तर की अपेक्षा भी है.. इस से पहले मैंने आपके ब्लॉग पर बात की थी..और आप मौन....नहीं ये नहीं चलेगा...बात नहीं करोगे यानी जवाब नहीं दोगे तो एक तरफा बात मैं कब तक कर पाऊँगा...समझ गये ना मेरी भावना...! ठीक है...फिर मिलते हैं...बाय....
ReplyDeleteTime : 7:04 PM, http://tabartoli.blogspot.com