मिट्टी का जिस्म लेकर पानी के घर में हूं....
जब भी कोई अखबार लांच होता है तो मंचासीन अतिथि अपने श्रीमुख से 'खींचो न कमान/न तलवार निकालो/ जब तोप मुकाबिल हो/ तो अखबार निकालो' जुमला सुनाकर बेवजह तालियां बटोर लेते हैं। सच बताऊं...मुझे इन पंक्तियों को सुनकर पीड़ा होती है। 16 साल से सुन-सुनकर बोर ही तो हो रहा हूं। विशेषकर छोटे अखबारों की बात करें तो इन पंक्तियों का कोई मतलब नहीं रह गया है। देश में हजारों नहीं लाखों लोग 'पंपलेटनुमा' अखबार निकालकर गुजर-बसर कर रहे हैं। मुझे ताज्जुब होता है कि पाठकों की अच्छी लगने वाली खबरें छापकर भी मैं पाक्षिक अखबार को रेगुलर नहीं चला पाया और आखिर में बंद कर नौकरी ज्वाइन कर ली। वहीं आजकल बेहतर खबरों की छोडि़ए सिर्फ विज्ञापन के दम पर लोग दैनिक अखबारों का प्रकाशन कर रहे हैं। इतना ही नहीं, इनके संपादक भी ऐसे जिन्हें पत्रकारिता के 'क..ख..ग' से कोई लेना-देना नहीं। यकीकन, नियमों का पालन करते हुए अखबार चलाना मुश्किल नहीं असंभव है। इस बात से आप इत्तिफाक रखेंगे, ऐसी उम्मीद है।
सेमिनारों व गोष्ठियों में इस तरह की बातों पर सवाल उठता है कि क्या बड़े मीडिया ग्रुप इन बातों का खयाल रखते हैं? अगर नहीं तो छोटे अखबारों पर छींटाकशी करने का क्या औचित्य है? सवाल सटीक है लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि बड़े ग्रुप कम से कम पाठकों की रुचि तथा सामाजिक सरोकारों से तो संबद्ध हैं और बाकी....? जाहिर है अगर इन छोटे अखबारों का पाठकों की रुचि तथा सामाजिक सरोकारों से कोई वास्ता नहीं तो फिर इसके संचालन का क्या औचित्य है?
देश भर में हजारों ऐसे अखबार हैं जो सिर्फ फाइलों में छपते हैं। निर्धारित समय तक प्रकाशित होने का प्रमाण मिलने के बाद शासन भी उसे विज्ञापनों के लिए मंजूरी दे देता है और फिर....? दसवीं फेल संपादकजी की हेकड़ी का कहना ही क्या। उनके अतिउत्साहित होने का खामियाजा बेचारे पुलिसवालों, छोटे-छोटे दुकानदारों व कर्मचारियों को झेलना पड़ता है। ऐसे में किसी ने क्या खूब लिखा है.....
जब भी कोई अखबार लांच होता है तो मंचासीन अतिथि अपने श्रीमुख से 'खींचो न कमान/न तलवार निकालो/ जब तोप मुकाबिल हो/ तो अखबार निकालो' जुमला सुनाकर बेवजह तालियां बटोर लेते हैं। सच बताऊं...मुझे इन पंक्तियों को सुनकर पीड़ा होती है। 16 साल से सुन-सुनकर बोर ही तो हो रहा हूं। विशेषकर छोटे अखबारों की बात करें तो इन पंक्तियों का कोई मतलब नहीं रह गया है। देश में हजारों नहीं लाखों लोग 'पंपलेटनुमा' अखबार निकालकर गुजर-बसर कर रहे हैं। मुझे ताज्जुब होता है कि पाठकों की अच्छी लगने वाली खबरें छापकर भी मैं पाक्षिक अखबार को रेगुलर नहीं चला पाया और आखिर में बंद कर नौकरी ज्वाइन कर ली। वहीं आजकल बेहतर खबरों की छोडि़ए सिर्फ विज्ञापन के दम पर लोग दैनिक अखबारों का प्रकाशन कर रहे हैं। इतना ही नहीं, इनके संपादक भी ऐसे जिन्हें पत्रकारिता के 'क..ख..ग' से कोई लेना-देना नहीं। यकीकन, नियमों का पालन करते हुए अखबार चलाना मुश्किल नहीं असंभव है। इस बात से आप इत्तिफाक रखेंगे, ऐसी उम्मीद है।
सेमिनारों व गोष्ठियों में इस तरह की बातों पर सवाल उठता है कि क्या बड़े मीडिया ग्रुप इन बातों का खयाल रखते हैं? अगर नहीं तो छोटे अखबारों पर छींटाकशी करने का क्या औचित्य है? सवाल सटीक है लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि बड़े ग्रुप कम से कम पाठकों की रुचि तथा सामाजिक सरोकारों से तो संबद्ध हैं और बाकी....? जाहिर है अगर इन छोटे अखबारों का पाठकों की रुचि तथा सामाजिक सरोकारों से कोई वास्ता नहीं तो फिर इसके संचालन का क्या औचित्य है?
देश भर में हजारों ऐसे अखबार हैं जो सिर्फ फाइलों में छपते हैं। निर्धारित समय तक प्रकाशित होने का प्रमाण मिलने के बाद शासन भी उसे विज्ञापनों के लिए मंजूरी दे देता है और फिर....? दसवीं फेल संपादकजी की हेकड़ी का कहना ही क्या। उनके अतिउत्साहित होने का खामियाजा बेचारे पुलिसवालों, छोटे-छोटे दुकानदारों व कर्मचारियों को झेलना पड़ता है। ऐसे में किसी ने क्या खूब लिखा है.....
ये खबर लिखना उनका काम नहीं
जिनके दिल आंखों में बसा करते हैं,
खबर तो वो शख्स लिखते हैं
जो शराब से नहीं कलम से नशा करते हैं।
जिनके दिल आंखों में बसा करते हैं,
खबर तो वो शख्स लिखते हैं
जो शराब से नहीं कलम से नशा करते हैं।
यकीनन, अखबार समाज को आइना दिखाता है। खबरों को पढ़कर लोग आश्वस्त होते हैं। पत्रकार लोकतंत्र का प्रहरी है। समाज में उसे सम्मान प्राप्त है, दूसरों से श्रेष्ठ बनने के लिए कुछ अलग दिखना ही होगा, यही सभ्य समाज का दस्तूर भी है। पत्रकारिता इतना आसान नहीं है। चुनौतीपूर्ण दायित्व है यह। खबरनवीसों को लेकर किसी ने ठीक ही तो कहा है....
मिट्टी का जिस्म लेकर पानी के घर में हूं
मंजिल है मौत मेरी हर पल सफर में हूं,
होना है कत्ल ये मालूम है मुझको
फिर भी क्यों सबकीनजर में हूं।
मंजिल है मौत मेरी हर पल सफर में हूं,
होना है कत्ल ये मालूम है मुझको
फिर भी क्यों सबकीनजर में हूं।
bahut achhi bat kahi apne...ekdam satik aur satya....to iska kya samadhan socha hai apna?
ReplyDeleteहहाहाहा कहां आप आज भी बीसवीं सदी की पत्रकारिता कर रहे है,
ReplyDeleteइस नए चिट्ठे के साथ हिंदी ब्लॉग जगत में आपका स्वागत है .. नियमित लेखन के लिए शुभकामनाएं !!
ReplyDelete" बाज़ार के बिस्तर पर स्खलित ज्ञान कभी क्रांति का जनक नहीं हो सकता "
ReplyDeleteहिंदी चिट्ठाकारी की सरस और रहस्यमई दुनिया में राज-समाज और जन की आवाज "जनोक्ति.कॉम "आपके इस सुन्दर चिट्ठे का स्वागत करता है . चिट्ठे की सार्थकता को बनाये रखें . अपने राजनैतिक , सामाजिक , आर्थिक , सांस्कृतिक और मीडिया से जुडे आलेख , कविता , कहानियां , व्यंग आदि जनोक्ति पर पोस्ट करने के लिए नीचे दिए गये लिंक पर जाकर रजिस्टर करें . http://www.janokti.com/wp-login.php?action=register,
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