tag:blogger.com,1999:blog-1198280793294425792024-03-05T08:12:31.183-08:00gopal jha ki kalam sedristhi-pathhttp://www.blogger.com/profile/06344874779543646114noreply@blogger.comBlogger7125tag:blogger.com,1999:blog-119828079329442579.post-57045231499926845512010-05-09T01:50:00.000-07:002010-05-09T02:04:03.532-07:00मां....आज तू याद आती है...!<a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhjlLCUVA7Y1UzJjQlOYOcBZjKj1YEqSrnH4VSIFPeV02tyNONRpkh58tBDsLgI6JsB0zcACgKzwcZV6Y4164GmK3jroC4ZEzWggHQlGnZ41OZv2ZUnKvZGBLCPd3cggITKQH4UIeRFEH0/s1600/maa.jpg"><img style="margin: 0pt 10px 10px 0pt; float: left; cursor: pointer; width: 158px; height: 207px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhjlLCUVA7Y1UzJjQlOYOcBZjKj1YEqSrnH4VSIFPeV02tyNONRpkh58tBDsLgI6JsB0zcACgKzwcZV6Y4164GmK3jroC4ZEzWggHQlGnZ41OZv2ZUnKvZGBLCPd3cggITKQH4UIeRFEH0/s320/maa.jpg" alt="" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5469193091711551634" border="0" /></a><br /><span style="font-weight: bold;font-size:180%;" >मां....आज तू याद आती है...!</span><br /><div style="text-align: center;"><span style="font-weight: bold;">मां! पहले आंसू आते थे</span><br /><span style="font-weight: bold;">और तू याद आती थी,</span><br /><span style="font-weight: bold;">आज तू याद आती है,</span><br /><span style="font-weight: bold;">और आंसू आते हैं...।</span><br /></div>इन चंद अल्फाज को कुछ अरसे के दौरान मैंने महसूस किया है। 26 अक्टूबर 09 की रात्रि जब मां ने मेरे सामने अंतिम सांस ली तो मैं हतप्रभ था। शायद मैं दुनिया का पहला अभागा होऊंगा जिसने मां की मौत पर तत्काल बेचैनी महसूस नहीं की। मानो मुझे उनकी मौत का इंतजार था। दरअसल मां कैंसर से पीडि़त थीं। जब आखिरी बार एक निजी हॉस्पीटल में दाखिल करवाया तो बिगड़ती स्थिति देखकर डॉक्टर ने जीवन में आने वाले भूचाल से मुझे अवगत करवा दिया था। वास्तविकता यह थी कि हम परिजनों के साथ उनकी मृत्यु की प्रतीक्षा कर रहे थे। बाबूजी मां को घर ले जाने की जिद कर रहे थे और मैं अस्पताल में रखने की। डॉक्टर के कहने के बावजूद मन के कोने में उम्मीद की एक लौ जो टिमटिमा रही थी। मंदिरों से दूर-दूर रहने की प्रवृत्ति के बावजूद मैं इच्छापूर्ण बालाजी के मंदिर में मत्था टेकने जाने लगा था। मां की बेबसी, लाचारी और असहनीय पीड़ा हमसे देखी नहीं जा रही थी। मैं शायद दुनिया का इकलौता बदनसीब हूं जिसने भगवान से प्रार्थना के वक्त उन्हें विकल्प देने की हिमाकत की थी कि या तो चमत्कार कर मां को स्वस्थ कर दीजिए या फिर उन्हें अपने पास बुला लीजिए।<br />सचमुच, उस वक्त हमने खुद को सर्वाधिक बेबस, कमजोर और लाचार पाया था। मां के जाने के बाद समाज का रुख मेरे लिए अविस्मरणीय था। प्रत्येक वर्ग ने मेरे प्रति जो संवेदना दिखाई, इस जीवन में उसे भुला पाना असंभव है।<br />खैर...क्रिया-कर्म के बाद रिश्तेदार भी लौट गए। वक्त बीतता गया और मेरी तड़प बढ़ती गई। मेरी आंखें मां से मिलने के लिए छटपटाने लगी हैं। मन की मामूली सी उलझन मुझे मां की याद दिलाती है। तन्हाई में उन्हें खुद के पास पाता हूं। जैसे किसी ने कहा भी है। 'जब भी कश्ती मेरी सैलाब में आ जाती है/ मां दुआ करती हुई ख्वाबों में आ जाती है।' लेकिन यह तो क्षणिक संतुष्टि है, जब आंखों से पानी बहता है तो कुछ देर के लिए हम खुद को सहज पाते हैं लेकिन इससे पीड़ा कम नहीं होती। फिर मां से सदा के लिए बिछडऩे की पीड़ा.....? बड़ा असहनीय है।<br />आचार्य विजययशावर्म सूरि कहते हैं 'संसार की दो बड़ी करुणताएं हैं, एक तो मां का घर और दूसरा घर बिना मां।' अब यह तय नहीं कर पा रहा कि हम किस कोटि में आते हैं। मन के भीतर ज्ञान और मोह के बीच कशमकश है। मुझे यह स्वीकार करने से गुरेज नहीं कि इसमें मोह का पलड़ा भारी है।<br />खैर...., मदर्स डे पर इस तरह जीवन की किताब को खोलना अच्छा नहीं लग रहा, लेकिन इरादा सिर्फ इतना है कि सौभाग्यवश जिनकी भी मां मौजूद हैं, वे उनके असीम और निश्छल स्नेह को महसूस करें। दरअसल जो हमारे पास है, उसकी कीमत को आंकने की कोशिश नहीं करते और जो नहीं है, उसे पाने के लिए छटपटाते भर हैं। मां के साथ अधिकाधिक वक्त गुजारें, उनकी हर इच्छा को पूरी करने की कोशिश करें। यह समझें कि मां के रूप में भगवान आपके सामने हैं। आप बाहर जाकर बड़े बन जाते हैं तो सिर्फ ओहदे के कारण लेकिन जब घर जाते हैं और मां से मिलते हैं तो बच्चा ही रहते हैं। कितना आनंद आता है, मां के समक्ष इतराने में। शायद इसीलिए...'मेरी ख्वाहिश है कि मैं फरिश्ता हो जाऊं, मां से इस तरह लिपट जाऊं कि फिर से बच्चा हो जाऊं...।' लेकिन यह मेरे लिए संभव नहीं क्योंकि मेरे पास मां नहीं है लेकिन आपके पास तो...मां है ना!dristhi-pathhttp://www.blogger.com/profile/06344874779543646114noreply@blogger.com6tag:blogger.com,1999:blog-119828079329442579.post-82551183526894874532010-04-04T07:13:00.000-07:002010-04-04T07:15:12.473-07:00<div style="text-align: justify;"><span style="font-weight: bold;font-size:180%;" >सानिया, शोएब और....!</span><br /> <span style="font-weight: bold;">म</span>जहब व क्षेत्रीयता के नाम पर सियासत करने में माहिर बाल ठाकरे दिल के बेहतरीन डॉक्टर भी हैं, यह पहली बार पता चला। उन्होंने सानिया मिर्जा तथा शोएब मलिक प्रकरण में 'सनसनीखेज' खुलासा किया कि सानिया का दिल पाक क्रिकेटर के लिए धड़कता है, इसलिए अब वे हिंदुस्तान की तरफ से खेलने की हकदार नहीं हैं। कहते हैं फितरत को बदलना मुश्किल होता है, शायद ठाकरे साहब के साथ भी यही समस्या है। हर मसले को जाति, धर्म व क्षेत्र से जोडऩा और उस पर जहरीले शब्दों का तीर चलाना कोई उनसे सीखे। (बाकी को जरूरत नहीं लेकिन उनका भतीजा जरूर पारंगत हो गया)<br /> बाला साहब की इस टिप्पणी से किसी को आश्चर्य हुआ हो, ऐसा नहीं है। इससे 'बेहतर' टिप्पणी की उम्मीद व्यर्थ है लेकिन एक सवाल जेहन में कौंधता है कि इस तरह के खास अवसरों पर वे चुप रहने से बाज क्यों नहीं आते? आखिर वे हैं क्या? (इसका जवाब भी महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में मिल चुका है।)<br /> सानिया-शोएब निकाह कर रहे हैं तो मुझे नहीं लगता कि किसी को परेशानी होनी चाहिए। यह उनकी पर्सनल लाइफ है। किसी का दिल कब और किस पर आ जाए, पता थोड़े न है! फिर वे दोनों खेल जगत की अंतरराष्ट्रीय हस्ती हैं। क्या शादी जैसे निजी संबंधों के लिए भी किसी को सार्वजनिक स्वीकृति लेने की जरूरत है?<br /> समूचे घटनाक्रम में इलेक्ट्रोनिक्स मीडिया भी कुछ कम नहीं है। ब्रेकिंग न्यूज के नाम पर जिस तरह एक ही खबर को बार-बार दोहराने की प्रक्रिया चल रही है, लगता नहीं, इससे उनकी टीआरपी बढऩे वाली है। मतलब साफ है। ठाकरे और मीडिया को भ्रम है कि देश और दुनिया को उनकी बातों में दिलचस्पी है। इसलिए वे बात को बतंगड़ बताने से नहीं चूकते। अगर ऐसा है तो यह अभिमान ठीक नहीं है। लिहाजा, ठाकरे और मीडिया के लिए ही मानो किसी ने कहा भी है....<br /><div style="text-align: center; font-weight: bold;">गुरूर उसपे बहुत सजता है, मगर कह दो<br />इसी में उसका भला है कि गुरूर कम कर दे।<br /></div><br /></div>dristhi-pathhttp://www.blogger.com/profile/06344874779543646114noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-119828079329442579.post-91265830467120243642010-04-03T08:41:00.001-07:002010-04-03T08:46:24.029-07:00<div style="text-align: justify;"><span style="font-weight: bold;font-size:180%;" >मिट्टी का जिस्म लेकर पानी के घर में हूं....</span><br /><span style="font-weight: bold;"> ज</span>ब भी कोई अखबार लांच होता है तो मंचासीन अतिथि अपने श्रीमुख से 'खींचो न कमान/न तलवार निकालो/ जब तोप मुकाबिल हो/ तो अखबार निकालो' जुमला सुनाकर बेवजह तालियां बटोर लेते हैं। सच बताऊं...मुझे इन पंक्तियों को सुनकर पीड़ा होती है। 16 साल से सुन-सुनकर बोर ही तो हो रहा हूं। विशेषकर छोटे अखबारों की बात करें तो इन पंक्तियों का कोई मतलब नहीं रह गया है। देश में हजारों नहीं लाखों लोग 'पंपलेटनुमा' अखबार निकालकर गुजर-बसर कर रहे हैं। मुझे ताज्जुब होता है कि पाठकों की अच्छी लगने वाली खबरें छापकर भी मैं पाक्षिक अखबार को रेगुलर नहीं चला पाया और आखिर में बंद कर नौकरी ज्वाइन कर ली। वहीं आजकल बेहतर खबरों की छोडि़ए सिर्फ विज्ञापन के दम पर लोग दैनिक अखबारों का प्रकाशन कर रहे हैं। इतना ही नहीं, इनके संपादक भी ऐसे जिन्हें पत्रकारिता के 'क..ख..ग' से कोई लेना-देना नहीं। यकीकन, नियमों का पालन करते हुए अखबार चलाना मुश्किल नहीं असंभव है। इस बात से आप इत्तिफाक रखेंगे, ऐसी उम्मीद है।<br /> सेमिनारों व गोष्ठियों में इस तरह की बातों पर सवाल उठता है कि क्या बड़े मीडिया ग्रुप इन बातों का खयाल रखते हैं? अगर नहीं तो छोटे अखबारों पर छींटाकशी करने का क्या औचित्य है? सवाल सटीक है लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि बड़े ग्रुप कम से कम पाठकों की रुचि तथा सामाजिक सरोकारों से तो संबद्ध हैं और बाकी....? जाहिर है अगर इन छोटे अखबारों का पाठकों की रुचि तथा सामाजिक सरोकारों से कोई वास्ता नहीं तो फिर इसके संचालन का क्या औचित्य है?<br /> देश भर में हजारों ऐसे अखबार हैं जो सिर्फ फाइलों में छपते हैं। निर्धारित समय तक प्रकाशित होने का प्रमाण मिलने के बाद शासन भी उसे विज्ञापनों के लिए मंजूरी दे देता है और फिर....? दसवीं फेल संपादकजी की हेकड़ी का कहना ही क्या। उनके अतिउत्साहित होने का खामियाजा बेचारे पुलिसवालों, छोटे-छोटे दुकानदारों व कर्मचारियों को झेलना पड़ता है। ऐसे में किसी ने क्या खूब लिखा है.....<br /></div><div style="text-align: center;"><span style="font-weight: bold;">ये खबर लिखना उनका काम नहीं</span><br /><span style="font-weight: bold;">जिनके दिल आंखों में बसा करते हैं,</span><br /><span style="font-weight: bold;">खबर तो वो शख्स लिखते हैं</span><br /><span style="font-weight: bold;">जो शराब से नहीं कलम से नशा करते हैं।</span><br /></div><div style="text-align: justify;"> यकीनन, अखबार समाज को आइना दिखाता है। खबरों को पढ़कर लोग आश्वस्त होते हैं। पत्रकार लोकतंत्र का प्रहरी है। समाज में उसे सम्मान प्राप्त है, दूसरों से श्रेष्ठ बनने के लिए कुछ अलग दिखना ही होगा, यही सभ्य समाज का दस्तूर भी है। पत्रकारिता इतना आसान नहीं है। चुनौतीपूर्ण दायित्व है यह। खबरनवीसों को लेकर किसी ने ठीक ही तो कहा है....<br /></div><div style="font-weight: bold; text-align: center;">मिट्टी का जिस्म लेकर पानी के घर में हूं<br />मंजिल है मौत मेरी हर पल सफर में हूं,<br />होना है कत्ल ये मालूम है मुझको<br />फिर भी क्यों सबकीनजर में हूं।<br /></div>dristhi-pathhttp://www.blogger.com/profile/06344874779543646114noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-119828079329442579.post-30694982827094589442010-04-01T07:57:00.000-07:002010-04-01T08:05:49.036-07:00<span style="font-weight: bold;font-size:180%;" >अधिकार, उलझन और औचित्य!</span><br /><span style="font-weight: bold;">-गोपाल झा</span><br /><span><span style="font-weight: bold;">कें</span>द्रीय</span> मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल ने एक अप्रैल 2010 को बच्चों के लिए शिक्षा के अधिकार के संघर्ष की राह में मील का पत्थर बताया है। यकीनन, सिब्बल की सोच स्वच्छ व सटीक है लेकिन इसके बावजूद शिक्षा को मौलिक अधिकार का दर्जा देने वाला संविधान का 86 वां संशोधन कई तरह के उलझनों को पैदा करता है। पहली बात तो यह कि क्या शिक्षा को अनिवार्य करने की यह पहल नई है? कभी साक्षरता तो कभी सर्वशिक्षा अभियानों के नाम पर अरबों रुपए को पानी की तरह बहाने का प्रयोग कभी नहीं हुआ? अगर हां तो इसके बावजूद देश भर में लाखों बच्चे ड्रॉपआउट क्यों हैं? सिब्बल इस कानून को बच्चों के नजरिए से देखने की बात करते हैं। उनका मानना है कि यह बच्चों के लिए ऐसी शिक्षा को अनिवार्य बनाता है जो भय, तनाव और उत्तेजना से मुक्त हो। बस्ता का बोझ कम करने को लेकर भी उनके विचारों का मैं कायल हूं यह अलग बात है कि यह सुनिश्चित होने में वक्त लगेगा।<br />उलझन इस बात को लेकर भी है कि देश में अधिकांश कानूनों की मंशा पाक और साफ होती हैं लेकिन जब क्रियान्विति के मौके आते हैं तो वह नौकरशाही व लालफीताशाही उन पर किस तरह कुंडली मारकर बैठ जाती है। लिहाजा सवाल उठता है कि सरकार इस कानून की पालना सुनिश्चित करने में कोताही बरतने वालों पर अंकुश लगाने के लिए क्या सोचती है?<br />बात सिर्फ राजस्थान के हनुमानगढ़ जिले की करें तो जहां एक तरफ करीब दस हजार बच्चों ने स्कूलों की ओर कभी रुख नहीं किया वहीं ताजा सूचना के मुताबिक शिक्षा विभाग ने जिले के 43 विद्यालयों को महज इसलिए बंद करने की सिफारिश की है क्योंकि उन विद्यालयों में बच्चे ही नहीं हैं। चौंकाने वाली बात तो यह है कि 20 ऐसे विद्यालय हैं जिनमें कभी एक भी बच्चा पढऩे नहीं गया और अध्यापक बेखौफ होकर वर्षों से मुफ्तखोरी करते रहे। बेशक, सरकार ऐसे शिक्षकों को किसी दूसरे विद्यालयों में समायोजित कर देगी लेकिन क्या यह नाकाफी है? ऐसे शिक्षक दंड के भागीदार नहीं हैं? क्या ऐसे 'राष्ट्रनिर्माताओं' पर सरकारी खजाने में डाका डालने का मुकदमा नहीं बनना चाहिए?<br />इन उलझनों के बीच इस तरह के कानून के औचित्य पर सवाल उठना लाजिमी है। इन चर्चाओं के बीच बाल साहित्यकार दीनदयाल शर्मा की टिप्पणी काबिलेगौर है कि जिस दिन अध्यापक अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन ईमानदारीपूर्वक करना शुरू कर देंगे, उसी दिन से देश की दशा और दिशा में बदलाव नजर आने लगेगा। बहरहाल, सिब्बल साहब के 'अनूठे प्रयोग' का स्वागत होना चाहिए तथा उम्मीद करनी चाहिए कि उन्होंने जिस सोच व मंशा से यह कानून बनाया है, वह उससे बेहतर तरीके से फलीभूत भी हो, तभी इस तरह के कानूनों का औचित्य है, वरना इस तरह के मुद्दे कुछ समय तक सुर्खियों में रहने के बाद किस तरह आंखों से ओझल हो जाते हैं, पता भी नहीं चलता।dristhi-pathhttp://www.blogger.com/profile/06344874779543646114noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-119828079329442579.post-26891407005970998162010-03-16T08:48:00.000-07:002010-03-16T08:50:28.689-07:00<span style="font-size:180%;">सबसे बड़ा कसूर जिंदगी का...</span><br />आपकी जिंदगी का सबसे बड़ा कसूर क्या है? चलिए...सोचकर बताइए, तब तक मैं अपनी बात कर लूं। दरअसल उस दिन मैं अपने मित्र डॉ. संतोष राजपुरोहित के घर गया था। वह अर्थशास्त्र से गोल्डमैडलिस्ट हैं और शहर के एक गल्र्स कालेज में पढ़ाते हैं। अचानक मेरी नजर मेज पर पड़ी एक पत्रावली पर जाकर टिक गई। पढऩे के बाद मैं पसोपेश में था कि इतने कम शब्दों में भला कोई जिंदगी का फलसफा कैसे बता सकता है? गलतियां इंसान की फितरत है। कहते हैं जब कुछ करेंगे ही नहीं तो अच्छे-बुरे का भान कैसे होगा? लेकिन जनाब, उस काम से क्या फायदा जिसका आगाज उचित समय पर नहीं हो। मैं जिस पत्रावली का जिक्र कर रहा हूं, वह सुमित अय्यर की थी जिसमें उन्होंने बड़ी अच्छी बातें कही हैं। बकौल सुमित.....<br /><div style="text-align: center; font-weight: bold;"><span>दिग्गज</span> <span>बनने</span> <span>का</span> <span>सपना</span> <span>जरूर</span> <span>जिंदगी</span> <span>का</span><br />'<span>जिंदादिली</span> <span>जिंदाबाद</span>' <span>नारा</span> <span>भरपूर</span> <span>जिंदगी</span> <span>का</span><br /><span>मेरे</span> <span>सहचरों</span> <span>का</span> <span>पथभ्रष्ट</span> <span>होना</span><br /><span>यह</span> <span>अंश</span> <span>नशे</span> <span>में</span> <span>चूर</span> <span>जिंदगी</span> <span>का</span><br /><span>हौसलों</span> <span>पर</span> <span>काबिज</span> <span>आलस्य</span><br /><span>यह</span> <span>अध्याय</span> <span>बड़ा</span> <span>क्रूर</span> <span>जिंदगी</span> <span>का</span><br /><span>अवसरों</span> <span>का</span> <span>मिलना</span>, <span>बिछडऩा</span> <span>दस्तूर</span> <span>है</span><br /><span>एक</span> <span>यही</span> <span>किस्सा</span> <span>मशहूर</span> <span>जिंदगी</span> <span>का</span><br /><span>छूटे</span> <span>मौके</span> <span>कभी</span> <span>लौटकर</span> <span>नहीं</span> <span>आते</span><br /><span>यही</span> <span>सबसे</span> <span>बड़ा</span> <span>कसूर</span> <span>जिंदगी</span> <span>का।</span><br /></div>जी हां, मैं वक्त की नजाकत की बात कर रहा हूं। आपाधापी के दौर में आज हर कोई व्यस्त है। किसी के पास फुर्सत नहीं है। जिससे बात कीजिए, कहता मिल जाएगा कि क्या करें यार, वक्त नहीं मिलता। किसी ने ठीक कहा है जिसे वक्त की परवाह नहीं है वक्त भी उसकी परवाह नहीं करता। सच बताऊं, मैंने इस 'मंच' के जरिए आपसे मुखातिब होने के लिए बड़ा इंतजार किया है। पहले तो ब्लाग बनाने के लिए पत्रकार मित्र राजू रामगढिय़ा को वक्त नहीं मिला और दो माह के नियमित उलाहने के बाद बेचारे ने दरियादिली दिखा दी तो मुझे 'शब्दों का सफर' शुरू करने के लिए वक्त नहीं मिला। बहानेबाजी के लिए तो कह सकता हूं कि खबरनवीसों को वक्त ही कहां मिलता है? हालांकि यह महज बहाना नहीं थोड़ी सच्चाई भी है, विशेषकर अपने जैसे पत्रकारों के लिए तो कह ही सकता हूं कि हमारे पास वक्त 'भी' नहीं है।<br />वक्त बड़ा अनमोल है। आपने 'वक्त' फिल्म जरूर देखी होगी, अगर नहीं तो एक बार जरूर देखिए। बलराज साहनी अभिनीत इस फिल्म ने यह साबित किया कि वक्त से बड़ा कोई नहीं है। सियासत की बात करें तो आपने अटलबिहारी वाजपेयी का प्रधानमंत्रित्व काल देखा है जब हर कोई 'अटल धुन' गा रहा था आज वक्त ने पलटा खाया तो अटलजी गुमनाम हो गए, न मीडिया को याद है न ही पब्लिक को। वनडे मैच के इतिहास में सचिन ने दोहरा शतक क्या लगाया, जो लोग सचिन को इतिहास बताने से नहीं चूक रहे थे वे अब उनमें भविष्य तलाश रहे हैं। वक्त की बात हो और मुलायम के पुराने सिपहलसार अमरसिंह को छोड़ दें तो यह अन्याय है। वक्त का ही तकाजा है कि कभी हर मोर्चे पर मुलायम की रक्षा के लिए ढाल बनने वाले अमर आज उन पर विषैले शब्दों के बाण चला रहे हैं। चलिए अब आप मेरी जिंदगी का सबसे बड़ा कसूर तो समझ ही गए होंगे, रही बात आपकी तो कुछ वक्त देता हूं लेकिन हमसे जरूर शेयर कीजिएगा। इसका मुझे इंतजार रहेगा। फिलहाल 'वक्त पुराण' में आज इतना ही। मुझे भय है कि वक्त की कमी बताकर कहीं आप इस मंच से दूरी न बना लें। लेकिन उम्मीद है कि आप ऐसा नहीं करेंगे।dristhi-pathhttp://www.blogger.com/profile/06344874779543646114noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-119828079329442579.post-72910999789299076692010-03-02T04:38:00.000-08:002010-03-02T04:46:04.120-08:00<span style="font-size:180%;"><span style="font-weight: bold;">जिद</span><span style="font-weight: bold;"> </span><span style="font-weight: bold;">और</span><span style="font-weight: bold;"> </span><span style="font-weight: bold;">जुनून</span><span style="font-weight: bold;"> </span><span style="font-weight: bold;">की</span><span style="font-weight: bold;"> </span><span style="font-weight: bold;">जरूरत</span><span style="font-weight: bold;">....</span></span><br />पेशा लिखने का है लेकिन दायरे में रहकर। शब्दों की सीमा और 'स्टाइलशीट' के बंधन को स्वीकार्य करने की अनिवार्यता के साथ। पत्रकारिता का यह स्वर्णिम दौर है जिसमें सनसनी फैलाने की छूट के साथ ग्लैमर...नाम व शोहरत के अलावा भी बहुत कुछ है। हां...अगर अभाव है तो स्वविचार के साथ समुचित वक्त का। लिखने के लिए विचार की जरूरत है और मन के खेत में विचार की फसल उगाने के लिए पर्याप्त अध्ययन अनिवार्य है। वास्तविकता यह है कि इसके लिए हमारी पीढ़ी के अधिकांश खबरनवीसों के पास वक्त ही कहां है? खैर..., यह तो हमारी सामयिक व व सामूहिक समस्या है लेकिन तब क्या करें जब दुनिया की आपाधापी व तेजी से बदलते घटनाक्रमों को लेकर कुछ कहने की कसक दिल की दुनिया में हलचल पैदा करने लगे? इसी उधेड़बुन के बीच मानो अचानक किसी ने आवाज दी कि क्यों परेशान हो रहे हो? 'ब्लॉग' है ना! यकीनन 'ब्लॉग' सूचना एवं प्रौद्योगिकी के इस दौर में विचारों को उन्मुक्त करने का सरल व सशक्त माध्यम है।<br />किसी ने ठीक ही कहा है 'मरने के बाद आदमी कुछ नहीं बोलता। मरने के बाद आदमी कुछ नहीं सोचता और बिना बोलने व सोचने वाला व्यक्ति मर जाता है।' सच बताऊं...मैं मरना नहीं चाहता हूं। कम से कम खामोश रहकर व बगैर सोचकर तो हर्गिज नहीं। मैं तो जीना चाहता हूं....मरने के बाद भी। रहना चाहता हूं आपके बीच...दुनिया से चले जाने के बाद भी। यह न तो मुश्किल है और न ही नामुमकिन, बशर्ते कि हमारे मन में अभिव्यक्ति को लेकर जुनून और जिद हो।<br />मेरे पास तो यह दोनों की अमूल्य निधियां हैं लेकिन क्या आपके पास है विचारों के आदान-प्रदान करने का जुनून व इसके जरिए समाज से सीखने व सिखाने की जिद? अगर हां...तो स्वागत है आपका। आइए...'दृष्टिपथ' से निकली 'कसक' को कम से कमतर करने का सामूहिक प्रयास करें और वो भी आहिस्ता-आहिस्ता....।dristhi-pathhttp://www.blogger.com/profile/06344874779543646114noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-119828079329442579.post-2901200588895117742010-03-02T03:15:00.000-08:002010-03-16T08:46:50.193-07:00<span>गोपाल झा: पेशे से पत्रकार हैं लेकिन छोटी सी आयु में श्रमिक राजनीति की बेहतरीन पारी खेल चुके हैं। मौजूदा राजनीतिक प्रक्रिया से खफा हैं लेकिन लोकतंत्र की विसंगतियां दूर होने को लेकर आशान्वित हैं। पत्रकारिता का मौजूदा दौर उनके मन को कचोट रहा है। यही वजह है कि वे इसमें सुधार की भरपूर गुंजाइश देखते हैं। मीडिया अब मिशन नहीं उद्योग है, ऐसे में वे पेशेवर पत्रकारों को अपनी मेहनत व ईमानदारी की बदौलत कंपनी की मजबूरी बनने की सीख देते हैं। बगैर किसी राग-लपेट के बेबाक टिप्पणी करना उनकी फितरत है, उनका यही अंदाज उन्हें समकक्ष पत्रकारों में अलग स्थान दिलाता है। मूलत: मधुबनी (बिहार) के गांव शाहपुर में जन्म लेकिन 19 साल पूर्व हनुमानगढ़ (राजस्थान) में आ बसे। विभिन्न समाचार पत्रों में स्वतंत्र लेखन के अलावा 'इंदुशेखरÓ नामक पाक्षिक अखबार निकाला लेकिन पत्रकारिता के मूल सिद्धांतों के साथ समझौता नहीं कर पाने की जिद ने नौकरी के लिए बाध्य किया। बहरहाल 'दैनिक भास्करÓ में ब्यूरो चीफ के रूप में कार्यरत।<br />राजू रामगढिय़ा, पत्रकार ईटीवी<br /><br /></span>dristhi-pathhttp://www.blogger.com/profile/06344874779543646114noreply@blogger.com1